सिद्धार्थ से गौतम तक का सफर

        सिद्धार्थ से गौतम तक का सफर _   _1,
शाक्य. भारत देश के उत्तर -पूर्व कोने में एक स्वतंत्र राज्य.था। बाद में कौशल.नरेश ने इसे अपने राज्य, में शामिल कर लिया कोशल - नरेश प्रसंजित. और मगध-नरेश. बिम्बिसार सिद्धार्थ गौतम के समकालीन थे,
जयसेन के पुत्र सिंह- हनु का विवाह कंच्चाना. से हुआ जो कि | शाक्य वंशी था। शाक्यों की राजधानी थी.कपिलवस्तु .सिंह-हनु. के पाच.पुत्र थे- 
       शूद्धोदन.धौतोदन" शुक्लोदन"शाक्योदन.तथा अमितोदन"इन पांचों पुत्रों के अतिरिक्त सिंह-हनु की दो.पुत्रियाँ. थीं - अमिता तथा प्रमिता"

शुद्धोदन_एक. वीर पुरूष था और अपने अन्य भाईयों में वह मजबूत काठी, बलवान व धैर्यवान पुरूष था। शुद्धोदन.का विवाह महामाया से हुआ। महामाया की एक बड़ी बहन थी, महाप्रजापति" जिनके पिता. का नाम अन्जन था, और माँ" का नाम सुलक्षणा" था। एक दिन शुद्धोदन.ने सभा. में अपनी वीरता का परिचय दिया तो वहां उपस्थित वरिष्ठ धर्मगुरुओ ने"उन्हें एक और विवाह करने की अनुमति दे दी। शुद्धोदन. ने महाप्रजापति को चुना ।

563 ई.पू. में वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ ने लुंबिनी. वन में महामाया के कोख से जन्म ग्रहण किया, उस समय सारी लुंबिनी. फूलो से महक रही, थी। पक्षी चहचहा रहे थे ।
सिद्धार्थ से गौतम तक का सफर

शुद्धोदन और उसके परिवार द्वारा, बल्कि सभी. शाक्य सदस्यों द्वारा पुत्र जन्मोत्सव का उत्साह. शान-बान और  ठाट-बाट से बहुत ही         
               प्रसन्नतापूर्वक मनाया जा रहा था,

शुद्धोदन" एक बड़ा धनी व्यक्ति था। उसके पास. बहुत बड़े बड़े खेत थे और बहुत सारे नौकर चाकर थे । सिद्धार्थ के जन्म के पश्चात ही शुद्धोदन कपिलवस्तू, का राजा बना और सिद्धार्थ राजकुमार

बालक का पांचवे दिन नामकरण संस्कार किया गया, जिसमें बालक का नाम रखा गया सिद्धार्थ । उनका गोत्र था गौतम तभी. से,वे सिद्धार्थ गौतम हो गए.

सात. दिन के बाद महामाया को लगा की अब. वह नहीं बचेगी.यह सोचके.तब उसने, महाराणी, महा, प्रजापति, को बुलाया और आंखों में आंसू उभरे, हुए,  कहा - अब अपने बच्चे को  मैं नहीं देख सकूंगी" 
 इसे तुम्हें संभालना है। प्रजापति, ने कहां - मैं इसे एक माँ की तरह पालूंगी।
     सिद्धार्थ, की माता, का देहान्त"
 हुआ तो, सिद्धार्थ की आयु. केवल 7. दिन की थी.।

प्रजापति का एक पुत्र था नंद। वह सिद्धार्थ का छोटा भाई था। शुद्धोदन.के भाई शुक्लोदन के दो पुत्र थे अनुरूद्ध" अमितोदन का एक पुत्र था - आनंद। शुद्धोदन की बहन अमिता जो कि सिद्धार्थ की बुआ थी, का पुत्र देवदत्त था । महानाम और

सिद्धार्थ ने संपूर्ण शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात आलारकालाम.के शिष्य भारद्वाज से चित्त को एकाग्र तथा समाधिस्थ करने का मार्ग सीखा। उनका आश्रम कपिलवस्तू.में ही था ।

सिद्धार्थ स्वभाव से ही कारूणिक थे। वे बचपन से ही ध्यानी, तर्क विचारक थे उन्हे अच्छा.नहीं लगता था कि आदमी, आदमी का शोषण करे।

     एक बार. देवदत्त ने एक पक्षी को तीर मारा। वह पक्षी तीर लगने के पश्चात सिद्धार्थ के सामने गिरा और तड़फड़ा"रहा था। सिद्धार्थ ने तीर निकाला, जख्म पर पट्टी बांधी और पक्षी को पानी दिया। थोड़ी देर बाद पक्षी थोड़ा ठीक. हुआ। थोड़ी देर में देवदत्त वहां आ पहुँचा.और पक्षी को मांगने. लगा। सिद्धार्थ ने पक्षी देने से इंकार कर दिया। न्याय हेतु मामला न्यायालय तक जा पहुँचा।,मारने, वाले से बचाने वाला"श्रेष्ठ,. होता.है, के आधार पर न्यायालय ने सिद्धार्थ के पक्ष में निर्णय दिया। सिद्धार्थ की जीवन सैली" ऐसे.कई कहानी. यो" से भरपूर, रही. 

सिद्धार्थ एक दिन कपिलवस्तू. घूमने निकले। कपिलवस्तू. से घूमने निकलनेके.पश्चात उन्हें एक बूढ़ा व्यक्ति दिखा, तो उन्होंने अपने सारथी छन्दकसे_कहां यह अपनी आयु को पार कर रहा है। एक दिन उन्हें रोगी व्यक्ति दिखा जो बीमारी से ग्रस्त था, उसकी ऐसी अवस्था देखकर सिद्धार्थ ने सारथी छन्दक.से पूछा कि उस व्यक्ति की ऐसी अवस्था क्यों है । 
           सारथी छन्दक. ने कहाँ"वह .रोग से पीडित, है, | इसलिये.उसकी ऐसी अवस्था हुई है। एक दिन सिद्धार्थ ने एक मृत शय्या,जाते हुई देखी,

उस समय  भी उन्होने रथ चलाने.वाले से पूछा संदक  क्या ये व्यक्ति का देहान्त हो गया  क्या इस इन्सान का शरीर पंच.तत्वों में समा,  जायेगा ?

 छन्दक,  ने कहाँ - हा, सिद्धार्थ गौतम, इसका शरीर मृत हो गया है और | इसका शरीर तत्वों में लीन हो जायेगा। उस समय सिद्धार्थ के मन में दुःख के विचार उत्पन्न हो रहे थे वे समझ गये.थे ।कि जीवन में यह अनिवार्य सत्य है। एक दिन उन्हें एक साधू नजर आया जो अपनी साधना में लीन था, उस समय सिद्धार्थ के मन में विचार आया कि यह सभी बन्धनों, से मुक्त है, इसे भय नहीं है, ना ही इसे दुःख है। इस प्रकार,

   वे जीवन में इस प्रकार के होने वाली घटनाओं से विचारवान थे। इसी तरह खोएरहने,के कारण. सुद्धोदन, ने सिद्धार्थ का विवाह करने का विचार किया।

दण्डपाणि जो कि यशोधरा के पिता थे, उन्होने विवाह के लिए लक्ष्य. बद्ध,. एक परीक्षण परीक्षा रखी, जिसमें सिद्धार्थ ने भाग लेने से इंकार इसलिए.कर दिया क्योंकि ऐसी परीक्षा को वे व्यर्थ समझते थे, लेकिन. सिद्धार्थ के सारथी।  छंदक     ने   समझाया, कि ऐसा. करने से उसके परिवार तथा यशोधरा जो कि सिर्फ, सिद्धार्थ से विवाह करना चाहती थी, जिसके लिए शर्म, की , बात हो जायेगी। सिद्धार्थ ने इस बात को स्वीकार किया।

परीक्षण आरंभ होने पर कई यौद्धाओं ने लक्ष्य भेदने की | कोशिश की किन्तु सब असफल रहे। सबसे अन्त में सिद्धार्थ की बारी आई और सिद्धार्थ ने बिल्कुल सही लक्ष्यभेदा, यह उनके सर्वश्रेष्ठ योद्धा होने की परीक्षा भी थी, जिसमें वे यशोधरा के दिल, में ,जगह, बना सके। विवाह होने के उचित समय बाद यशोधरा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम राहुल रखा गया।

 सिद्धार्थ गौतम के पिता,काफी,प्रसन्न. थे कि सिद्धार्थ विवाह से बहुत खुश! थे,। लेकिन फिर, भी कभी कभी वे चिन्तित हो उठते थे कि मेरा पुत्र सिद्धार्थ सन्यास ग्रहण न कर ले, क्योंकि सिद्धार्थ उन्हें अक्सर ध्यान में मग्न, तथा सत्य की खोज करने की जिज्ञासा रखते नजर आते थे, तभी तो उन्होंने अपने महल के इर्द-गिर्द सुन्दर बाग लगाये थे., कई प्रकार के फूलों के पौधे लगा दीए। तथा उन्होंने सुंदरियों को भी सिद्धार्थ, कि सेवा करने को कहा.गया 

और,उन्हें .यह,समझाईस  दी  गई  कि  सिद्धार्थ, का, मन जितने का प्रयास करें, पर. वे परियों.कि जैसी नजर आने वाली. सुन्दरियां.भी सिद्धार्थ, का मन जीतने में पास नहीं हो सकी,

शाक्य-संघ का सदस्य बने, सिद्धार्थ, को आठ वर्ष हो गए थे,शाक्यों.के राज्य से लगा हुआ.कोलियों का राज्य था. रोहिणी नदी. दोनों  राज्यों की बार्डर रेखा थी, शाक्य और कोलिय दोनो ही,रोहिणी.नदी के पानी से अपने खेत सींचते थे। हर फसल पर.उन दोनो के बीच झगड़े  होते.ते

     यह  झगड़ा.    कभी_कभी युद्ध लड़ाई में बदल. जाती, थी, एक दिन.उसी रोहिणी नदी के पाणी. के कारण विवाद ज्यादा बढ. गया निर्णय युद्ध करने  के निशाने  पर. आ पहुंचा"शाक्यों ने इस पर सभा बुलवाई. 

बात युद्ध तक पहुंची.जिसमें भाग लेने से सिद्धार्थ. ने इंकार .किया.जिसका कारण था कि सिद्धार्थ चाहते थे कि युद्ध किसी. समस्या का हल नहीं हों. सकता  था। 

  अगर.युद्ध करेगें तो.दुश्मनी बढ़ जायेंगि.एक दूसरे राज्य के सैनिकों. की जाने व्यर्थ में चली जायेगी। लेकिन वहां सेनापति व उसके. समर्थक सिद्धार्थ की बात नहीं मान सके. और सिद्धार्थ के सुझाव को इंकार कर दिया.सेनापति का मत, बहुमत. से पास किया गया, और.अगले दिन युद्ध हेतु सैनिक भर्ती के प्रस्ताव के लिये. सभा बुलवाई. गई,
  
जब. संघ के सभी लोग एक जगह जमा हुए, तब वहां सभी ने अपने मत युद्ध के पक्ष में रख दिए केवल सिद्धार्थ ने इस बहुमत के आगे सिर नहीं झुकाया. 
बहुत सोच विचार होने के बाद भी. सिद्धार्थ झुके नहीं उनके मत,    के आगे.

 क्योंकि वे उसझगड़े.का प्रेम, से निराकरण"चाह. रहे  थे.वे खून खराबा और अपने पड़ोसी राज्य के सात दुश्मनी. नहीं  चाहते थे.

       इस पर सेना. के सेनापति को क्रोध आ गया. और.सेना के लीडर ने ग्रूप के नियम.का पालन न. कर सकने के कारण. सिद्धार्थ से यह कहा.
       
     संघ.तुम्हारे परिवार के. सामाजिक बहिष्कार का निर्णय कर सकता है.। इसके. बाद भी सिद्धार्थ अपने शांति के निर्णय पर डटे.रहे. इसी कारणवस. सिद्धार्थ को ग्रुप के नियम के मुताबिक दण्ड दिया गया.
     
सिद्धार्थ के आगे तीन. ऑप्शन में से एक ऑप्शन का चुनाव. करना था. ( 1 ) सेना. में नौकरी करके युद्ध.में हिस्सा लेना. ( 2 ) फाँसी. पर लटकना या देश से निकाल दिया जाना.(3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जप्ती. के लिये राजी होना,।

इन.तीन ऑप्शन में से. सिद्धार्थ ने देश से तड़ीपार हो जाना स्वीकार कर लिया. इसका कारण अपने देशवासियों को शांति की भावना देना ही था.। क्योंकि इसी मत, पर वे निश्चियी.रहे,।   लेकिन.... बहुमत के आगे नहीं झुके ।

सिद्धार्थ ने. जंगल में भटकना स्वीकार किया. इसके. पहले"सिद्धार्थ के मन में कई प्रकार के विचारो के प्रश्न थे. उनकी खोज को भी.उन्हें करने का अवसर,  प्राप्त. हुआ.

सिद्धार्थ के.घर से निकलने के पहले "शुद्धोदन.व माता प्रजापति. बहुत ही दुःखी थे.सिद्धार्थ की पत्नी.यशोधरा की आंखों.में भी आंसू थे. यशोधरा ने सिद्धार्थ से कहां, - आप ने हमेशा.सत्य को देखा है.और सत्य के प्रति वफादार.रहे है, आप दुनिया को ऐसी राह दिखाये" जो अनन्त समय तक मार्गदर्शक हो. मैं ऐसी आपसे अभिलाषा. करती हू

सिद्धार्थ का रथ चलाने.वाला,छन्दक.अपने घोड़े. कन्थक" के साथ सिद्धार्थ गौतम. को.अनोमा नदी के किनारे. तक छोड़ने गये.वहां वे इतने दुःखी हुये, कि कन्थक भी. रो पड़ा। कन्थक कि आंखो से आंसु.झर रहे थे । छन्दक. भी.दुःख से

कुछ कह पाने में. असमर्थता महसूस कर रहे थे. छन्दक.के वापस लौटने के पहले. कपिलवस्तू. एकदम सूना सा था. सब शोक में.थे कि सिद्धार्थ गौतम. देश से बाहर चले गये. छन्दक.को राज्य. की. ओर वापस लौटकर आते देख 

कपिलवस्तू.में सिद्धार्थ के राजवाड़े के लोग  दुःख के मारे रो पड़े. और.चीखने _चिल्लाने लगे. सिसकते आवाज मे. कहने लगे - राज्य. की स्यान चमकता सितारा राजकुमार. सिद्धार्थ. कहां है?" नगर की. स्त्रियों में.अपने घर.के दरवाजे, खिडकियाँ.बंद कर ली ओर जोर-जोर से दु:ख.विलाप करने लगी.

कपिलवस्तू.से निकलकर सिद्धार्थ गौतम. ने मगध राज्य.की. राजधानी राजगृह जाने का विचार किया. तब  राजा, बिम्बिसार मगध राज्य का राजा था.

 बिम्बिसार राजा को.सिद्धार्थ.के सन्यास गृहण करने  का कारण पता चला.वह.भी दुख का नास करने वाले. देवता के लिये. बहुत दुःखी हुआ.
 
और.उन्होंने सिद्धार्थ से कहा मैं आपको अपने विशाल राज्य. में.से अपना आधा राज्य.देता हूँ.आप तेजस्वी हैं. चक्रवर्ती हैं.आपको सन्यास ग्रहण नही करना चाहिये.सिद्धार्थ ने उत्तर.दिया "मैं मानव सेवा की.भावना के कारण सन्यास | से अलग नहीं हो सकता,

सिद्धार्थ गौतम.ने शांति की. खोज करतेहुये.एक स्थान पर.कुटी बनाकर रहने लगे. वहाँ.उनकी कुटी देखकर अन्य पाँच.दूसरे संन्यासी भी आय.उन्होने उनके पास ही एक कुटी बना ली. इन पाँच, सन्यासियो.के नाम थे - कौण्डिन्य.अश्वजित, वाष्प, महानाम तथा भादिक"

पाँचों.संन्यासी.ने.उनके सन्यास का कारण पूछा तो.उन्होनें

वह.सारी परिस्थिति समझाई जो कि उनके सन्यासी होने का कारण बनी थीं,  तभी पाँचों. संन्यासी ने उनसे कहा। - "हाँ. सुना है हमने , पर आप जानते हैं क्या , आपके कपिल वस्तु से चले जाने के बाद क्या हुआ वहा पे ?"

सिद्धार्थ, ने, उत्तर दिया की मैं नहीं जानता।" तब पाचो संन्यासी ने सिद्धार्थ को बताया, कि आपके चले जाने के बाद.कोलियों. से युद्ध ठानने के विरोध में. शाक्यों में बड़ा आंदोलन छिड़ गया,

वे सब लोग नारे लगा रहे थे, कि "शाक्य और कोलियो भाई, भाई हैं, 
        एक भाई का दूसरे भाई के विरूद्ध, शस्त्र उठाना ऊचित नहीं है
        सभी राजकुमार सिद्धार्थ, के सन्यास ग्रहण. को इस्मरन करो" वगेरे, वगेरे । "

शाक्यों  राजार के .आन्दोलन. का असर ऐसा हुआ कि, कोलियो का दिल भी पिघल गया और दुःखी भी हुये और शान्ति का प्रस्ताव देने के लिए तैयार हुये।

 अब कोलिए और शाक्य भाई-भाई, है, उनमें अब दुश्मनी नहीं हैं,अब आप जिस वजह से संन्यासी बने संन्यासी बने रहने की, कोई जरूरत नहीं, अब आप अपने, राजमहल गांव परिवार के लोगों के पास. सकून और प्रसन्नता से वापस जा सकते हो,

सिद्धार्थ. ने  उत्तर दिया 'इस  समाचार से मन में प्रसन्नता मन आनन्दित हुआ,
    यह मेरी जीत है। किंतु मैं वापस तो घर नहीं जाऊंगा, मुझे संन्यासी ही बने रहना चाहिए,
     क्यूकि मैं,  शांति की खोज में निकला हूँ।

खुद लक्स को पूरा करने के लिये. सिद्धार्थ .राजगृह .छोड़कर आलार.कालाम के आश्रम कुटी. की ओर निकल.गए रास्ते में वे भृगु, ऋषि. के आश्रम में रूक. गए,वहां कुच समय. चर्चाये करने के बाद वे मुनि आलार.कालाम से
             स्याख्य.परम्परा का अभास करने के लिये. आगे चल दिए, 

आलार. कालाम, वैशाली में ठहरे हुये थे,(वैशाली, वर्तमान.मे बिहार का एक जिला,. है गौतम वैशाली पहुंचे. आलार.कालाम से मिलने के बाद सिद्धार्थ ने कहा - "मैं,आपके.सिद्धान्त. और अभ्यास में दीक्षित. होना चाहता हूँ."

आलार, कालाम ने कहा. 'तुम्हारा स्वागत है.।
      और, आलार, कालाम ने सिद्धार्थ को अपना शिष्य स्वीकार किया,
        वहां.पर कुछ दिन. अभ्यास मे दिक्षित होने के बाद आलार.कालाम से ध्यान मार्ग एवं समाधि लगाने का ढंग सीखा,
          
 ज्ञान शिखने के बाद,आलार.कालाम ने सिद्धार्थ से कहा,मैंने. 
       अपनी. सभी  विद्या में आपको परिपूर्ण कर, दिया है, अब आप मुनि, उद्दक. राम-पुत्त,. के पास जायें,
        वे आपको ध्यान विधि के. सब तरह कि, विद्या ज्ञान सिखायेंगें. सिद्धार्थ, ने उद्दक राम- पुत्त. के पास जाकर ध्यान की सभी विद्या सिखी.

 सिद्धार्थ.ने पहले सुना था, कि मगध जनपद में, ध्यानाचार्य। हैं., सिद्धार्थ ने उनका भी हुनर सीख लेना चाहा.
     वे मगध, गये। सिद्धार्थ ने देखा उनकी ध्यान-विधि का आधार सिर्फ सांस पर काबू पाना ही था,। सिद्धार्थ, ने यह विधि भी सीख, लि।

सिद्धार्थ. ने सांख्य-मार्ग तथा.समाधि-मार्ग का, परीक्षण.कर लिया था,। अब सिद्धार्थ तपश्चर्य्या का परीक्षण करना चाह रहे थे, इसलिये.वे राजर्षि.नगरी के आश्रम. में .गए  जो कि ऊरूवेला नगर में स्थित था, वहां, निरंजना , नदी के किनारे पर वहां एकान्त     
और शान्त स्थान था, 

वहां.,पर  तपश्चर्य्या के लिये, बैठ गए, वहां पर वोहीं. पाँच संन्यासी मिल, गए जो. तपश्चर्या के लिये बैठे      थे.
      वे सिद्धार्थ से मिले और सिद्धार्थ ने तपश्चर्य्या करने के उनके मन में उठते विचार की सराहना की, 

सिद्धार्थ.की तपस्या,तथा.आत्म-क्लेश की प्रक्रिया. अत्यन्त, उग्र. रूप की थी, 
     वे,कभी,कभी, दो तीन घर ही भिक्षा मांगने के लिये जाते.
       लेकिन सात.घरों से अधिक कभी नहीं भिक्षा मांगने जाते थे,।

वो, एक दीन.में एक टाइम खाना खाते थे ग्रहण, खाना खाने की प्रक्रिया धीरे-धीरे दो दिन में. एक बार.
      आगे सात दिन में एक बार.   धीरे, धीरे पन्द्रह दिन में एक बार.  इसी तरह इसके बाद वह पन्द्रह दिनों में,  बहुत. कम  ही खाना खाते  थे ।

सिद्धार्थ ने तपस्या को और  उप्पर उठाने के लिये घरों में जाकर भिक्षाटन. करना छोड़ दिया,
       जंगल. से हरी जड़े, कंद मूल, पत्ते, वह भी थोडी सी मात्रा मे, खाते थे 
          नही तो, अंकुरित हुये जौ के दाने, पेड़ों की छाल के छोटे टुकड़े, कम मात्रा में लेने लगे,

सिद्धार्थ की तपस्या की क्रिया बढ़ती ही रही,
  इसके,  बाद  वह  जंगल.में स्वयं हवा से गिरे जंगली फल फूल और हवा से उड़कर जमा हुई सूखी और गीली जड़ें,।
        बहुत कम मात्रा में खाने लगे. उनके कपड़े या तो जंगल में उगने वाले.झाड़ से सन निकलता था, उसके  बने थे, नही तो सन् की रस्सी के,
        
 लोगों ने फेकें हुए कपड़े.कूड़े कचरे के ढ़ेरों पर पड़े हुए चीथड़ों. के, या पेड़ की छाल के, सूखी हुई घास के, आदमियों. या जंगली पशुओं के बालों से बने हुए, कम्बलों के,  सिद्धार्थ इतने अधिक कमजोर और शक्तिहीन हो गये थे. कि खड़े नहीं हो पाते थे,
 
सिद्धार्थ हमेशा.पालथी मारकर पद्मासन मे बैठते थे, और पालथी मारे बैठे _बैठे आगे धीरे _धीरे सरकते थे.

सिद्धार्थ शरीर के विषय मे कोई मोह नहीं रखते थे , तपस्या में बैठे हुए, दिन महीने साल गुजरते गए  वर्षो तक.उनके शरीर पर. मैल जमती रही. और बाद में अपने आप , गिरते रही,

सिद्धार्थ.अति घनघोर.घने जंगल में रहते थे.ऐसे घनघोर जंगल में कि.उसके बारे में यह कहा जाता था कि एक पागल के सिवा इस घने जंगल में, कोई और प्रवेश.करने का साहस भी नहीं कर सकता, था, अगर ऐसा कोई भी इन्सान करेगा तो उसके, अन्दर भावनाए पैदा होंगी उसके रोंगटे खड़े हो जायेगें.

सिद्धार्थ तपस्या में लीन, टंड के दिनों में भयानक ठण्ड में रात को खुले  आकाश के नीचे.और दिन के समय. किर.. घुप अन्धेरे में. बरसाती मौसम के ठीक पहले ग्रीष्मऋतु. की शरीर जलाने वाली   भयानक. गरमी पड़ने पर. दिन में सूर्य के नीचे रहत थे 
           और. रात को दम.घोट देने वाली गरमी में  जंगल के अंदर  में.
        इसी तरह बरसात के मौसम  में उन पर बरसात होने पर भी वे ध्यान में ही रहते थे.
        इसके, बाद सिद्धार्थ खाने मे,एक दिन में, एक ही फल्ली खाकर दिन बिताने लगे।
            उसके बाद में एक हि सरसों का दाना. उसके  बाद में एक हि चावल का कच्चा दाना खाकर गुजारा करने लगे थे तो सिद्धार्थ का शरीर बहुत अधिक जीर्ण.क्षीण हो गया था,
             इस प्रकार क्षीण,  हुए शरीर का पेट और पीठ एक दूसरे के बहुत नजदीक लगे हुए थे।

श्री.सिद्धार्थ , कि तपस्या इतनी उग्र और भयानक थी, जितनी उग्र वह आखरी तक हो सकती थीं, 
 
      उनकी, इतनी  उग्र और भयानक तपस्या. 3 वर्ष तक लगातार चलती रही,। 
         3 वर्ष,बीत, जाने के बाद उनका,शरीर. इतना दुर्बल और कमजोर हो चुका था. कि वह हिलते-डुलते भी  नही  थे.

ऐक.दिन सुजाता ने  देवता समझ कर.सोने कि थाली  में खीर सिद्धार्थ को अर्पण कर दी थी,।
       इसका  कारण, था कि .सुजाता. ने मन्नत मांगी थीं कि, उसे संतान- लाभ: हुआ 
        तो वह वहां पर किसी भी साधु संत को बड़ के वृक्ष के नीचे खीर का दान और भेंट चढ़ायेगी। कुच हि दिनों मे उसके मन की मनोकामना पूर्ण हुई। 
        
इसी.कारनो से झाड़  के नीचे .बैठे हुए तथागत को सुजाता ने खीर दान भेंट.करने के लिए पुण्णा नाम की दासी. को उस झाड़ के नीचे पूजा-सामग्री तैयार करके लाने को कह दिया.
           पुण्णा, नाम की दासी, उस झाड़ के  नीचे पूजा-सामग्री रखने के लिए गई तो उसने सिद्धार्थ, को वहां पर तपस्या करते हुए देखा, जो कि बाकी अन्य  जगह से उस झाड़ के नीचे ध्यान करने के लिये बैठे थे.
          
  पुन्ना नाम की दासी ने सुजाता, के पास जाकर बताया तो, सुजाता बहुत खुश हुई और उस बड़ के झाड़ के नीचे अपने खुद के हाथ से बनाई हुई खीर जो कि सोने कि थाली में थी.
            सिद्धार्थ गौतम को अर्पण कर दी.लेकिन सिद्धार्थ गहरे ध्यान में  थे। सुजाता. ने सिद्धार्थ को उठाने कि  बहुत कोसिस कि.
            नहीं उठने पर सुजाता. वहां से चली गई। इसके बाद, 
दो नाचने गाने वाली. लड़किया वहां से जा  रही थी,
     उनके हात मे बजाने वाला सितार था,
     
और वही रूककर  एक जगह बैठकर वह सितार के तार को जोर जोर से कस रही थी. इतने में  एक लड़की  ने कहां. अरी सहेली! 
         सितार के तार को , और मत कस नहीं तो टूट सकती हैं,।
              सिद्धार्थ,ध्यान. से जाग्रत हों चुके थे. और उस लड़की की बातो को सुनकर विचार और कल्पना. कर रहे थे.
               कि शरीर भी  सितार की तरह है, इसे ज्यादा तानेगें कसेंगे तो यह टूट भी सकता है.

               और भी मन मे कहीं तरह के विचार आए.
      इसमें आत्मा कि विजय  हों नही सकती. और ना ही,  पूर्णरूप से बोधिसत्व.प्राप्त करने का मार्ग, है.और ना ही मोक्ष. का मार्ग है,

मन के विचार से ही.शरीर कार्य करता है. या, कार्य, करने से दूर रहता है.
    सबसे योग्य मन की ही साधना है,।

जिनके शरीर की ताकत कम हों रही हैं,
     जिसको भूख और प्यास सता रही हैं, 
 तन और शरीर थकावट के कारण मन एकाग्र तथा शांत नहीं है,
         इस तरह के इन्सान को कभी भी ज्ञान प्राप्त हो नही सकता
 
सिद्धार्थ ने खीर रखी हुईं, सोने की थाली ली, और सूपटिट्ट नदी मे नहाने के बाद. खीर भोजन ग्रहण किया, और सिद्धार्थ ने अपनी तपस्या वही पर समाप्ति कर दी.,
          लेकिन सिद्धार्थ के इस तरह तपस्या सोडने के कारण, वे पांच संन्यासी सिद्धार्थ से बहुत नाराज़ हो गए.
      और सिद्धार्थ को सोडकर कहीं दूर चले गए 
      
सिद्धार्थ, ने  सुजाता की खीर भोजन करने के बाद खुद को तरोताजा करने के बाद यह विचार किया
       की मैं ज्ञान प्राप्त करने में फैल हों गया
  लेकिन मेरा यह दृंड संकल्प हैं कि , एक दिन में ज्ञान प्राप्त करके रहूंगा 

फिर आगे चलकर सिद्धार्थ पीपल के झाड़ के नीचे पद्मासन की मुद्रा में बैठे.,

ज्ञान प्राप्त करने का अटूट संकल्प लेते हुए, सिद्धार्थ ने यह पक्का विचार किया कि
   चाहे मेरी नसे, त्वचा सिर्फ़ शरीर की हड्डियां बाकी क्यों न रह जाए,
           
 चाहे मेरा  खुन और मास. शरीर के शरीर में ही क्यों न.सुख जाए,
            लेकिन मैं  ज्ञान प्राप्त किए बैगर इस जगह को नहीं सोडूंगा
        
उस,पीपल के झाड़ के नीचे सिद्धार्थ ने तपस्या करने से पहले, इधर उधर से इतना सारा अनाज इखट्टा कर लिया था कि चालीस दिन तक कम न पड़े, और आराम से पुर सके 

हर परिस्थिति के बारे मे विचार करके, मुसीबतों का हल निकालकर. सिद्धार्थ ने अब खाना खा कर अपने आपको तरो ताजा कर लिया था.
        और आत्म निर्भर होकर इस प्रकार सिद्धार्थ ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए. अपनी तैयारी पुर्ण कर लि थीं 

सिद्धार्थ. को ज्ञान प्राप्त करने के लिए, लगातार,28, दिनों तक ध्यान में मग्न रहना पड़ा. उन्हें आखरी अवस्था तक पहुंचने के लिए. चार चरण पार करने पड़े 


नम्बर.1.

पहला चरण तर्क वितर्क, विचार प्रधान थे, एकान्तवास. की वजह से  वे बड़ी आसानी  से हासिल कर सके.

नम्बर.2.

दूसरे चरण में  मन की एकाग्रता थी.

नम्बर.3.

तीसरे चरण में समचित्तता. और जागरूकता. थी,

नम्बर.4.

चौथा और आखरी चरण. में समचित्तता. और पवित्रता.और जागरूकता थी.,

 इसी प्रकार चारो चरण से ध्यान में मग्न सिद्धार्थ का चित्त एकाग्रता मे आ गया, और उसने अपने मन पर काबू पा लिया. 

चौथे. चरण के आखरी दिन, उनकी अंतरात्मा
     कुच इस तरह प्रकाशित हुई . उन्हें साफ साफ़ यह ज्ञात, हुआ कि, संसार रुपी इस दुनियां मे दुख है
       और इस दुख का नास करना. है,.
       जिससे सम्पूर्ण मानव जाति को सूखी बनाया जा सकेगा 

बहुत दिन सिद्धार्थ ने, दुख और उसके निवारण. मे ध्यान लगाया. सिद्धार्थ ने इसका सई सई उत्तर ढुंढ निकाला. जो कि सम्यक.संबोधी. कहलाया.
        इस वजह से जिस पीपल के झाड़ के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान कि प्राप्ति हुई थीं, वहीं पीपल का झाड़ बोधी व्रक्ष कहलाया.
              ज्ञान हासिल होने के बाद सिद्धार्थ. गौतम बुद्ध कहलाए.

गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद. वही पांच संन्यासी के पास गए. और सबसे पहले सारनाथ. मे
     गौतम बुद्ध ने सबसे पहला धर्मचक्र. प्रवर्तन. मे पंचशील. और अष्टांगिक. मार्ग का उपदेश दिया.,

भगवान. बुद्ध का धम्म सत्य मार्ग पर चलने वाला है
      तर्कसंगत. हैं,वैज्ञानिक. हैं
 भगवान बुद्ध धम्म के मार्ग को. आत्म सात, करने पालन, करने.और अभ्यास करने से. इन्सान का चित्त शुद्ध और पवित्र होता है,।
 
भगवान बुद्ध के धम्म में.पंचशील. अष्टांगिक. मार्ग और, 10, पारमिताए हैं,
       जिसका पालन करने से इन्सान. के मन मे. पवित्रता, और सुद्धता के भाव आते है.
              और इन्सान हर एक प्रकार के दुख से निजात पाता है,.
              और इस इन्सान रुपी जीवन में. सम्पूर्ण रूप से शुद्ध से परिपूर्ण होता है 

                    ~पंचशील~
        

                     नम्बर एक~
किसी भी प्राणी की हिंसा. नहीं करना चाहिए .


                     नम्बर दोन
 चोरी नहीं करना चाहिए. मतलब, किसी दूसरे की चीज को . अपनी नहीं समझना चाहिए 


                     नम्बर तीन 
व्यभिचार न करना,. मतलब. किसी के सात. नाजायेद संबंध नहीं बनाने चाहिए.,


                     नम्बर चार ~
कभी किसी से झूट नही बोलना चाहिए 


                      नम्बर पांच ~
किसी भी नशीली चीजों को. खाना या पीना नहीं चाहिए.

                      अष्टांगिक मार्ग 
     इसी तरह अष्टांगीक.मार्ग  भी हमे. सई मार्ग की और ले जाते हैं,. और अपने से बड़े या छोटे लोगो को भी, सई मार्ग. पर चलने के लिए. प्रोत्साइत. करते है.,      

              (  1  ). सम्यक् दृष्टि     (अच्छी नजर)
सम्यक का मतलब अच्छा होता है,
      1.     कर्मकाण्ड. के कामकाज को व्यर्थ समझे.

       2.अंध-विश्वास से खुद को किनारे कर ले,.

       3. इसी तरह की सभी झुटी. धारणाओं और परंपराओं से मुक्त.हो, जो, की मनुष्य. के मन, की मंनघडन कहानी हो,
           जिन बातों का इन्सान के अनुभव, या जानकारी., से किसी भी तरह का कोई संबंध नही,.
     
      4. मन और विचार पूरी तरह से. स्वतंत्र हों.

             
                    (  2 ). सम्यक् वाणी

1.   सत्य.ही बोले,.

2. असत्य.न बोले,.

3. किसी दूसरे. कि बुराई न करें

4. लोगो के बारे मे, झुटी बाते न फैलाए,.

5. हर एक के साथ विनम्र सभ्य. वाणी का व्यवहार करे,.

6. क्रोध आने पर. किसी के विरूद्ध, गाली गलोच, या, कठौर शब्दो का व्यवहार न करें,.

7. बे मतलब मूर्खतापूर्ण. फालतू कि बात न करें, अपनी वाणी. बुद्धि संगत हों, सई हो, उद्देश पुर्ण हों,.

               
      (  3  ). सम्यक-कर्मांत 

                1. हमारा हर कार्य ऐसा हो. जो अच्छे व्यवहार की शिक्षा देता हो, जो कार्य करते समय. हम किसी दूसरे का हक और भावनाओ का खास ख्याल रख सके 
     
        (  4  ). सम्यक.आजीविका

हर इन्सान को अपनी रोजी रोटी, कमानी होती हैं,.
         पर रोजी रोटी, कमाने के तरीकों में अंतर है, 
 कुच तरीके अच्छे हैं. कुच. बहुत ही खराब.      
       खराब तरीका वह है., जिससे किसी का नुकसान होता है,. नई तो किसी के सात, अन्याय होता है,.
               अच्छे तरीके वह है,. जिस काम में इंसान दूसरे को हानि पहुंचाए बिना, लोगो के सात अन्याय किए बिना, अपनी रोजी रोटी कमाता है,.   सम्यक आजीविका कहलाती है,.         

          (  5  ).सम्यक.व्यायाम.
    अंधकार के ज्ञान को, खत्म करने के प्रयास की पहली सीडी है,.
          अंदकारी दुखद जैल के दरवाजे तक जाने का रास्ता ताकि. उसे खोला जा सके,.
      सम्यक.व्यायाम. के चार लक्स हैं:-

         1.  अष्टांगिक.मार्ग के विरोधी.चित्त.अवस्था की पैदाइस को रोकना.

        2.ईस तरह की, चित्त.-अवस्था को दबाना जो पैदा. हो गई हों,.

  3.  चित्त.-अवस्था को.पैदा करना जो अष्टांगिक. मार्ग. की जरूरतों को पूरा करता हों,.

          4. अच्छी चित्त अवस्था बनाने में,. और भी वृद्धि करना. और उनको विकसित करना
        
          (  6  ).सम्यक. स्मृति.,
बात बात पर ध्यान केंद्रित करना, मन में जो नाकामयाब निगेटिव.विचार उठते है, उन विचारों को रोकना.
       व. अच्छे.पाजीटीव विचारो को ध्यान. मे रखना,.
            
        (  7  ).सम्यक.समाधि.,
सिर्फ, अंतरात्मा की एकाग्रता. लालच, आलस्य, क्रोध, को त्याग करना.
           इनके बंधनों से आजाद होने की कोशिश सम्यक समाधि है.
           जिसके लिए सिर्फ अंतरात्मा की एकाग्रता बहुत जरूरी है.

  सम्यक समाधि एक भावनात्मक. क्रिया है, यह मन को अच्छे कामों की और एकाग्रता. के साथ चिंतन. करने का अभ्यास.करवाती है,.
         और इसी तरह मन. से उत्पन्न बुरे कर्म की और खींचने कि अवस्था को ही खत्म कर देती है,.

सम्यक समाधि. मन को अच्छाई. भलाई और हमेशा अच्छे से अच्छी. बात. सोचने की आदत. डालती है,.
          सम्यक समाधि. अपने मन को जरूरत के हिसाब से शक्तियां देती है,. जिस वजह से सभी का कल्याण, हो सके 

        ( 8  ).सम्यक.संकल्प.
सभी की कुच आशाए होती हैं इच्छाएं होती हैं. सपने होते है,.
        ये हमारी आशायें, हमारी इच्छाएं ऊँचे लेबल.  की हों. हलके लेबल की ना हो,. हमारे योग्यता के अनुसार हों,. बेफालतु ना हो यही सम्यक.संकल्प है,.

                       दस. पारमिताएं,.
        पारमिता का अर्थ है _ पूर्णता.
इसी तरह दस. पारमिताये. सबको सुयोग्य मनुष्य. जीवन. जीने के लिऐ प्रेरित. करती है,. और हमे अच्छे   मनुष्य.जिवन से प्रेरित. होके.गुरु के सानिध्य मे रहकर अन्य दूसरे  भी अच्छा ज्ञान हासिल करके,. और अच्छे रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणा पाते है,.


                    ( 1 ). दान पारमिता,.
     देना दान शब्द का मतलब है.उदारता.की भावना रखना. 
         निस्वार्थ भाव से हर एक किसी की सेवा करना, पुण्य के काम करते रहना, खुद से किसी दूसरे को लाभ हो, कुच ऐसा काम करना
             दानी मनुष्य में, त्याग करने की भी भावना हो ऐसा मनुष्य ही खुल कर दान कर सकता है,.
                 मन को मारकर किया गया दान. दान   नही, कहलाता,.
                 वह तो उस इंसान की मजबूरी हो सकती है,. मजबूरी मे आकर किया गया त्याग, दान नहीं होता,. त्याग _परित्याग. दान में ही समाए हुए है,.

     दान का उद्देश. परित्याग. और, धर्म उपदेश के जरिए ज्ञान का दान.देकर, मनुस्य का जिवन अति सुखमय बनाता है,.

दान कभी भी, क्रोधित होकर, ईर्षा या घृणा करके नही दिया जाता,.
             दान, बुराई करने या दो ग्रुपो के बीच फूट डालने के उद्देश से भी दान नही दिया जाता,.
      दान तो पवित्र और शुद्ध मन से दिया जाता हैं,.
      दान.प्रेम स्नेह के शब्द से मीठी भाषा से दान दिया जाता है,
      

                 (  2  ).शील.पारमिता,.

शील. शब्द का मतलब है, - अनुशीलन.
    किसी भी जीव को दुख और कष्ट नहीं देना
       प्रेम स्नेह से बोलना., और सत्यवचन बोलना,. मिठी और कोमल भाषा में बोलना,. सभी से अच्छा व्यवहार रखना, ये सब शील है,.
       सब के प्रति दया की भावना रखना. किसी का नुकसान न करना,. और किसी को परेशान नही करना सिल है,.


                ( 3 ).नैष्क्रम्य.पारमिता,.
                
   नैश्क्रम्य शब्द का मतलब हैं.,_त्यागना, सभी तरह की बुरी आदतो का त्याग कर देना,.

 मानव निर्मित वस्तुओ की. भरपुता. अ समानता और दुख पैदा करने वाले वस्तु को जानकर उन सबको. त्यागना. ऐसे, कार्य से दूर रहना जो बाद मे खुद को, नीचा दिखाए, या जिससे लोगो मे बुराई हो,
      ऐसे काम को त्याग देना, किसी का नुकसान नहीं करना., दुश्मनी, या प्रतिशोध की भावना का त्याग कर देना चाहिए,
      
            
             (  4  ).प्रज्ञा. पारमिता,.

प्रज्ञा शब्द का अर्थ. है, जानना ।  
 {ज्ञान. बुद्धि. प्रकाश -अथवा विद्या}

         जिस तरह सील से समाधी.
      समाधी से प्रज्ञा. हासिल होती हैं,.
उसी तरह प्रज्ञा.से समाधी हासिल होती हैं,. 
      प्रज्ञा, नहीं रही तो सील भी व्यर्थ है,। और यह दोनो नही रहे तो, समाधी भी पुर्ण नही हो सकती,।
      प्रज्ञा. ज्ञान कि एसी किरण है,. जो मोहमाया मतलब, अज्ञान. रुपी अन्धकार को खत्म करता है,.

किसी वस्तु के साथ हमे लगाव हो जाता है,. जिसके बिना हम रह नहीं सकते, वह चीज किसी दिन, आने वाले भविष्य में खत्म होने वाली है,.
    हमारा शरीर भी, एक ना एक दिन खत्म हो जाएगा,.
          इसी तरह मन का अन्धकार. दूर होगा तो वह प्रज्ञा है, ऐसा मानना चाहिए,.
           मन का अज्ञान नष्ट होना,. मन को तरकिए ज्ञान होना ही प्रज्ञा हैं,.
           

                ( 5 ).वीर पारमीता,.
विर शब्द. का मतलब है_ वीरता,.
सावधानी के साथ सजकता से अपने अन्दर की शक्तियों को पूर्णरुप से जाग्रत करते हुए, लोगो का उद्धार, और उनका दु:ख दूर करना 
    और आध्यात्मिक साधना में, अपनी सम्पूर्ण ताकत, शोर्य, साहस और, अधिक से अधिक कार्य. करना,
    जहा पर, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता , साहस की, आवश्यकता हो, वहा वीरता से कार्य. करना,।
          खुद के पास रखी हुईं, अमूल्य. चीज को भी दान में देने का साहस रखना,.
          
        त्याग की भावना रखना,. दूसरो के हित, और दूसरो के सु:ख के लिए मर मिटने की भावना ,।
        
          रोग. शोक. दु:ख. दर्द या खराब परिस्थिति का सामना, करके निवारण करना वीरता हैं,.

                      6. क्षांति.पारमिता,.
क्षांती शब्द का मतलब है __सहनशीलता,.

जिस तरह संसार में दुख है,तो सुख भी कही छिपा हुआ है, सुख और दुख, एक जगह रुखकर नहीं रह सकते, अगर संसार की सभी वस्तु एक जगह हमेशा होती, तो दुख पीड़ा न होती,
       
लेकिन ऐसा नहीं है, जैसे रात्र बीतने के बाद दिन, और दिन के बीतने के बाद रात होती हैं,
उसी तरह जिवन में सुख दुख बदलते रहते हैं,,

यह भावना. बोधिसत्व. को सहने की शक्ति और शान्ति देता  हैं, 
           शान्ति धारण करने से,. क्रोध और अपमान को सहन करने की समता प्राप्त होती हैं,. शान्ति नहीं रही, तो क्रोध को खत्म नहीं किया जा सकता

शान्ति को घुस्सा. नफरत. बदले कि भावना का विरोधी कहा गया है,
    घुस्सा आने के बाद, इन्सान के शरीर में रक्त वाहिनी नसे, करंट कि जैसी दौडने लगती हैं,
   
 आम इन्सान घूस्से के फोर्स से असंतुलित. हो जाता है,
         और घूस्से से वशीभूत इन्सान अपना हि नुकसान कर बैठता है,.
        घूस्से से इन्सान की बुद्धि और ज्ञान कमजोर हो जाता है,
        सहन करने वाला इन्सान, शान्ति के अभ्यास से इस तरह कि कमजोरी. से आजाद रहता, है
            सहन करने वाले इन्सान मे, क्षमा करने का भाव उत्पन्न. होता है. बोधिसत्व इन्सान क्रोध को काटते हुए
        सबको क्षमा कर देते है,

शान्ति रखने वाला इन्सान सहनसीन होता है., इसलिए उसका दुनिया में कोई शत्रु और विरोधी  नहीं रहता 

     शान्ति से बोधिसत्व. की बुद्धि और ज्ञान का विकास होता है. और वे किसी भी तरह कि गलत भावना के वशीभूत नही होते. 

       शान्ति के ध्यान से, बोधिसत्व इन्सान उत्तम. समाधी को प्राप्त करते है,
         शान्ति मे ध्यान मग्न इन्सान को, उत्तम तप,. मे परिपूर्ण कहा गया है,

        दु:ख. रोग,.शोक,. दर्द,. या खराब परिस्थिति के वक्त धैर्य रखना हि सहनशीलता. हैं,

क्षान्ति पारमिता. के अभ्यास मे बोधिसत्व,. दुनिया मे अच्छे, और बुरे, प्रिय और अप्रिय,.
         सुशील और दुस्शील,. कटु और मधुर,. इन सभी इंसानों, के प्रति, भावना को ध्यान मे रखते हुए, समदर्शी होकर विचरण करते है,

बिधिसत्व. की यही स्थिर. चित्त अवस्था. जीवन से मुक्त इसलिए येक जैसी हो जाती है,
         इसमें न उन्हें जीने की च्याहत होती है,. न मौत. की इच्छा
         तभी तो बोधिसत्व इन्सान मनुष्य जीवन को, एक सुखी जीवन जीता है,.।


               7. सत्य पारमिता,.

       सत्य का अर्थ है- सच कहना,.।
सत्य पारमिता, का कार्य है,
           सत्य की मंजूरी एवं उसको अच्छी तरह समझना, सत्य कहना, और सत्य का पालन करना बहुत मुश्किल काम है,
           
तभी तो सत्य पारमिता,. एक कटिन पारमिता हैं,
    लेकिन बोधिसत्व इंसानों के लिए यह कोई मुस्किल काम नहीं हैं,।

सत्य के बिना, सिलो का पालन करना संभव नहीं है,
   सत्य पारमिता के नियमो का पालन करने वाला इन्सान, झूट का हमेशा के लिए त्याग कर देता है,
             किसी भी परिस्थिति में झूट नही बोलता,

झूट मे लिप्त इन्सान, नीचे लिखे गए गुणों को आत्मसात कर लेता है,
1, लाभ, आमदनी की इच्छा
2, भय चिंता
3बैर.
4,मिथ्या आडमार,.
5, चोरी की भावना रखना
6, ठगी की भावना रखना,
7, हँसी मज़ाक की भावना
8, दूसरो के विनाश की इच्छा, या उसे जलना
9, दूसरो के मुंह से खुद की वाहवाही सुनने की इच्छा,
10, खुद का स्वार्थ पाने की इच्छा
11, धन हासिल करने की आशा 

बोधिसत्व इन्सान झूट से दूर रहकर, सत्य, पारमिता को पूरा करते है 


                8. अधिष्ठान,पारमिता,.

अधिष्ठान,शब्द का अर्थ हैं,_ अटूट संकल्प,
सभी पारमिताओ का पालन. करते रहने के लिए अटूट संकल्प लेने की परम आवश्यकता होती हैं,


किसी कार्य को पूर्ण  करने की अनुमति, और उनके नियमानुसार पालन करने के लिए हर बार अटूट संकल्प लेना ही अधिष्ठान पारमिता, हैं,

जिस तरह से पहाड़ किसी भी दिशा से आने वाले, आंधी. तूफ़ान, भयंकर हवा आने पर भी न डरता है, न हिलता है.
       अपने जगह पर हमेशा स्थिर रहता है., उसी तरह बोधिसत्व इन्सान, अपने अटूट संकल्प मे अड़ा रहता हैं,
    
मनुष्य के द्वारा अपनी मंजिल पाने के लिए. किया हुआ अटूट संकल्प पर डटे रहना, और उनकी पूर्णता के लिए हमेशा कार्य करते रहना ही अटूट संकल्प हैं.
     जो अधिष्ठान पारमिता की पूर्ती करता है,.


                9. मैत्री, पारमिता.,

मैत्री का अर्थ है _ मित्रता, सद्भावना दया
    चार ब्रह्म विहारो की भावना मे पहली कड़ी है मैत्री,
    और करुणा और आनन्द इसी के ही अंग है, क्योंकि, मित्रता के बिना करुणा और आनन्द का उत्पन्न सम्भव नहीं है
       इसी तरह जहा पर मित्रता नहीं, वहा आशा भी नहीं हो सकती ,
       इसी तरह, चारो ब्रह्म विहारो मे मित्रता.का स्थान पहला और आखिरी है,

जिस तरह सुर्य. चन्द्र, पाणी, जमीन सबके लिए एक समान है,
        उसी तरह बोधिसत्व, खुद के लिए, अपना, या पराया, दोनो के लिए समान रूप से, मित्रता की भावना रखता है,।
        बोधिसत्व मनुष्य के लिए मित्रता या सत्रुता कुच भी नहीं रह जाता,


बोधिसत्व के दिल में सभी प्राणियों के लिए, अनन्त, करुणा, प्रेम और दया. होती हैं,
       सत्वो के लिए बोधिसत्व के मन मे, ईर्षा. क्रोध, या दुश्मनी की भावना नहीं होती,
       दुश्मन के प्रति. भी वे मित्रता करते हैं, क्रोध के कारण इन्सान सिर्फ़ दुख ही भोगता हैं,
       
  रात दिन वह क्रोधाग्नि मन ही मन उसे जलाती रहती है,। लेकिन मित्रता की भावना से सर्व क्रोध का गलन, और नास होकर इंसान को खुशियों भरा समाधान प्राप्त होता हैं,

मित्रता वाला इंसान लालच, घृणा, स्वार्थ, से बचकर
   अपनी चतुराई, और होशियारी से, अपने चारो और का वातावरण प्रफुलित करता है,
        उसके अन्दर कभी भी पापी या दुष्ट चेतना विकसित नही होती,। 


                10. उपेक्षा.पारमिता,


अपेक्षा. का अर्थ =  मध्यस्थ, भाव
       अपेक्षा, के अभ्यास मे, बोधिसत्व इन्सान, सु:ख और दु:ख, मे मध्यस्थ होकर, विचरण करते है,। 

       जब इन्सान का कार्य, 100%सई हो, इसके बावजूद भी, बुराई करने वाला इंसान., अच्छे कामों मे दोष निकालते हुए दिख रहा हो, उसे देखकर, बिना क्रोधित हुए., बिना विचलित हुए,. अपने काम मे लगे रहना, बुराई सुनने पर भी, मध्यस्थ मोन,. भाव मे रहना हि, 
       अपने जरिए किए गए अच्छे काम मे, आनेवाली परेशानियो, कि अपेक्षा हैं,


बोधिसत्व इन्सान, ना दुख, की चिन्ता करते है, ना सुख मे अधिक खुश होते है,
             दोनो परिस्थिति मे, समान भाव मे रहते है,। और. अपेक्षा से पूर्ण होकर, अपेक्षा, कि चरम, सिमा पर जाकर बुद्ध तत्त्व की प्राप्ति करते है,

अपेक्षा, सात बौद्ध अंग मे सातवा, और चार ब्रह्म. विहार कि भावनाओ मे चौथा, और आखरी अंग है,
      अपेक्षा मित्रता कि भावनाओ को संतूलित रखती हैं,।

बोधिसत्व, अपेक्षा पारमिता, को ध्यान मे रखते हुए ना किसी से, मित्रता,..
 ना किसी से दुश्मनी 
  न किसी से प्रेम करता है.    
          ना किसी से ईर्षा. रखता है,
     पृथ्वी के समस्त जिओ के प्रति., समान भावना को अपनाते हुए, अपेक्षा के साथ विचरण करते, है, और अपेक्षा पार्मिता की पूर्ती करते है,

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