भक्ति से मिलते है भगवान,

         भक्ति से मिलते है भगवान        
धार्मिक स्थलो के मंदिरों में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उत्सव बहुत धूम - धाम से मनाया जा रहा था ।
       बाल , वृद्ध , युवा , स्त्री पुरुष  इस उत्सव को मनाने के लिए आए थे,
     श्री कृष्ण जन्माष्टमी मनाने 

  एक भव्य मंदिर, में सभी एकत्रित हुए थे । रात्रि के बारह बजते ही भगवान के प्रकट होने की घोसना, हुईं,
        और उसी के साथ देवालय में घंटा - घड़ियाल , शंख , ढोल , मृदंग आदि एक साथ बज उठे । 
     वहाँ उपस्थित सभी भक्त गण भगवान के प्राकट्य की खुशी में ढोल , मृदंग की थाप के साथ नृत्य करने लगे । 
         सबके आनंद की कोई सीमा न थी । घंटों सभी नृत्य - गान में डूबे रहे । उसी बीच पूर्ण विधान के साथ भगवान का अर्चन , वंदन , पूजन भी होता रहा । एक बार फिर से घंटा - घड़ियाल , ढोल , मृदंग , शंख बज उठे ।
                भावविभोर होकर सबने भगवान की आरती उतारी । उसके बाद, भगवान को अर्पित छप्पन • प्रकार के भोगों को वहाँ उपस्थित भक्तों , श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में वितरित किया गया 
          उन्हीं श्रद्धालुओं में रंगनाथ भी शामिल थे ,
 जो प्रसाद पाकर अब अपने गंतव्य की ओर चल पड़े थे ।
        उनका हृदय हर्षोल्लास से उफन रहा था
 भगवान के प्रकट होने से पहले,समारोह में शामिल होकर - उनका हृदय आनंद से उमगता जाता था, और वे अपने रास्ते पर बढ़े चले जाते थे,। 
               रात्रि के ठीक ढाई बजे वे अपने घर पहुँचे । भगवान के दिव्य स्वरूप का स्मरण - ध्यान करते - करते वे सोने के लिए, बिस्तर पर लेट गए ।
            क्या इस जन्म में मुझे भगवान प्राप्त हो सकेंगे या यह जन्म भी निष्फल ही चला जाएगा?      
        जीवन के अमूल्य 30 वर्ष बीत गए , पर अब तक मैंने भगवान की प्राप्ति के लिए कोई प्रयास भी तो नहीं किया ? 
        यह सोच - सोचकर उन्हें आत्मग्लानि हो रही थी । उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था कि भगवान की प्राप्ति के लिए अब तक मैंने कुछ क्यों नहीं किया ।
         इस जीवन का पल - पल बीता जा रहा है । पता नहीं कब इस क्षणभंगुर मानव जीवन का , नश्वर शरीर का अंत हो जाए 

इसी ग्लानि और पश्चात्ताप में वे सिसकियाँ भरने लगे । उनकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे,। और वे रोए जा रहे थे । 
       इन्हीं भावों के साथ वे गहरी निद्रा में चले गए । गहरी निद्रा में ही रंगनाथ ने एक दिव्य स्वप्न देखा । 
      उन्होंने देखा कि उनका शरीर वायु की तरह हलका हो चुका है । उनका शरीर अब भौतिक नहीं रहा । वे अभौतिक , आध्यात्मिक हो चुका हैं । उनका सूक्ष्मशरीर ऊपर उठता हुआ चला जा रहा है 
        कई सागर - सरिताओं , वनों - उपवनों के ऊपर से होते हुए वे आकाश की ओर बढ़े चले जा रहे हैं । अंततः वे आकाश मार्ग से होते हुए एक ऐसे दिव्य लोक में उतर आए हैं , 
       जहाँ दूर - दूर तक पर्वत - शृंखलाएँ हैं , पर्वतमालाएँ हैं ।चारों तरफ बर्फ की सफेद चादर - सी बिछी हुई है । चारों तरफ चंपा , चमेली , रजनीगंध रातरानी आदि सुगंधित पुष्पों की खुशबू फैली हुई है । 
        उन्होंने देखा कि वहाँ चंदन व देवदार के वृक्ष शोभायमान हैं । वहाँ आस - पास खिले हुए ब्रह्मकमल मन को मोह रहे थे,।
        वहाँ स्थित ब्रह्मसरोवर में सहस्रदल कमल खिले हुए हैं । सहस्रदल वाले कमलों के पराग से वासित शीतल मंद - सुगंध वायु प्रवाहित हो रही है 
        चंद्रमा अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ आकाशमंडल में शोभायमान है । चंद्रमा की शीतल किरणों से नहाकर पूरा क्षेत्र जगमगा उठा है ।
      अचानक उन्होंने देखा कि एक हजार दल वाला कमल एक प्रकाशपुंज के समान जगमगा रहा है । वहाँ पर चाँदी की तरह चमकता हुआ सिंहासन है । वह सिंहासन चंद्रमा की चाँदनी से और भी चमकने लगा है ।
        तभी अचानक उन्होंने देखा कि अंतरिक्ष में मेघों के बीच मेघवर्ण वाले भगवान श्रीहरि प्रकट हुए । उन्होंने स्वप्न में देखा कि आकाश मंडल से भगवान . विष्णु अपने दिव्य चतुर्भुज प्रकाश रूप में उतर रहे हैं । 
        उनके दिव्य रूप का दर्शन कर रंगनाथ के रोम - रोम प्रशन्नचित हो रहे हैं । उनके हृदयकमल खिल उठे हैं । भगवान के उस परम दिव्य सौंदर्य को देखकर रंगनाथ की आत्मा आनंद से उल्लासित होने लगी है । 
भगवान चाँदी की तरह चमक रहे उसी सिंहासन पर आ विराजे । भगवान की कांति मेघ के समान सावले रंग कि, थी । कमलदल के समान उनकी विशाल आँखें थीं ।
      वे भगवा रंग वस्त्र से सुशोभित थे । गले में सुंदर वनमाला धारण किए हुए थे । श्रीवत्स का चिह्न , बहुमूल्य रत्नों से सजे हुए मुखुट- कुंडल नयनाभिराम थे । 
                                     
उनके हाथों में चक्र , गदा और शंख शोभायमान दिख रहे थे,। । रंगनाथ भगवान के इस अलौकिक रूप का दर्शन पाकर अभिभूत होने लगे थे,
     उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगा । उन्होंने देखा कि वहाँ पास में ही सुरसरि गंगा प्रवाहित हो रही है ।
      रंगनाथ गंगा की धारा में स्नान कर दिव्य शरीर को धारण करने लगे । 
           सुरसरि गंगा की धार पर पड़ती चंद्रमा की शीतल चाँदनी वहाँ के सौंदर्य में चार चाँद लगा रही थी । चंद्रमा की धवल चाँदनी में नहाकर रंगनाथ की आत्मा निर्मल हो रही थी । उनके मन के सारे विकार दोष धूल गए थे,।

वे अब वहाँ रखे एक स्वर्णपात्र में उसी गंगाजल को भरकर उससे भगवान श्रीहरि के चरण धो रहे थे । वहाँ रखे सुगंधित चंदन का उनके चरणों मे लेपन कर रहे थे । 
        वहाँ उगे हुए तुलसी के पौधे से तुलसीदल तोड़कर उनके चरणों पर अर्पित कर रहे थे । तुलसीदल से बनी माला उनके गले में पहनाकर अर्पित कर रहे थे । चंपा , चमेली , ब्रह्मकमल आदि विभिन्न प्रकार के सुगंधित पुष्प , उनके चरणों में अर्पित कर रहे थे । 
       उसके बाद,वे वहाँ रखे आम , अमरूद , केले आदि ताजे फल अर्पित करने लगे व उन्होंने भगवान को धूप , दीप , नैवेद्य भी अर्पित किया । फिर वहाँ रखे स्वर्ण थाल में सोने के दीये में घी से जलाकर भगवान की आरती - वंदना की ।
                                     
  वे आरती किए जा रहे थे व अतिशय आनंद के कारण उनके नेत्रों से अश्रुपात भी होने लगे थे,। 
      वे आरती के बाद भगवान के चरणों से लिपटकर रोए जा रहे हैं ।
           वे अपने आँसुओं से मानो भगवान के चरण धो,रहे हों और उनकी आत्मा भगवान की स्तुति करते हुए गाए जा रही है

जिनका रूप अति, शांत हैं, जो शेष सय्या पर छोए हुए हैं, जिनके नाभी पर कमल खिला हुआ है, जो ईश्वर के भी ईश्वर हैं, जिनका ना आधी हैं, ना कोई अंत है, जो सम्पूर्ण सृष्टि के आधार है,

       ऐसे लक्ष्मीपति , कमलनेत्र भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ । फिर रंगनाथ ने स्तुति करते हुए आगे कहा,
        योगीजन ध्यान में स्थित हुऐ मन से जिनका दर्शन करते हैं , देवता और असुर गण कोई भी जिनके अंत को नहीं जानते , उन ( परम पुरुष नारायण ) देव के लिए मेरा नमस्कार है ।                   

 स्तुतिगान पूर्ण होते ही रंगनाथ ने देखा कि भगवान श्रीहरि अतिशय स्नेह से उनके सिर पर हाथ फेर रहे हैं । श्रीहरि के स्पर्श से उनके शरीर , मन व आत्मा में दिव्यता का , पवित्रता का , आनंद का अलौकिक ऊर्जा का संचार होने लगा ।
           श्रीहरि के स्पर्श से उनकी आत्मा ज्योतिर्मय हो जगमगा उठी । प्रभु ने फिर उनसे बड़ी ही मीठी वाणी में स्नेहपूर्वक कहा,
         वत्स रंगनाथ ! तुमने अपने पूर्वजन्म में मुझे पाने के लिए बहुत ही कठोर तप किया था । तुम्हारे कुछ प्रारब्ध संस्कार शेष रह गए थे ,
            जिसके फलस्वरूप तुम्हें पूर्वजन्म में मेरी भक्ति प्राप्त न हो सकी थी , पर अब वह समय निकट ही है , जब निष्काम भक्ति के द्वारा तुम मुझे इसी जन्म में प्राप्त कर सकोगे । 
        तुम नित्य गायत्री मंत्र जाप के साथ त्रिकाल संध्यावंदन करना । "                                      
                                   
भक्ति से मिलते है भगवान

      मंत्र का भी नित्य जप किया करना । तुम नित्य अग्निहोत्र तथा शास्त्रों का अध्ययन करना । मैं विष्णु हूँ अर्थात विश्व के अणु - अणु में व्याप्त हूँ । मैं ब्रह्मांड के अणु - अणु में व्याप्त हूँ । यह अखिल विश्व - ब्रह्मांड मेरा ही भौतिक विस्तार है। यह सृष्टि मेरी ही भौतिक अभिव्यक्ति है । इसलिए तुम मुझे मूर्तियों व देवालयों में ही सीमित न समझना । 
      तुम जीव सेवा के द्वारा भी मुझ नारायण की ही सेवा कर रहे होगे । मैं गुरुओं का भी गुरु हूँ । इसलिए तुम मुझे गुरु व आराध्य , दोनों ही रूपों में वरण कर अपने हृदय में मेरा नित्य ध्यान किया करना,
       भगवान श्रीहरि की यह दिव्य वाणी रंगनाथ के कानों से होती हुई आत्मा तक उतर आई थी । इसी के साथ ब्राह्ममुहूर्त में उनकी निद्रा भंग हुई ।
            उस दिव्य स्वप्न को स्मरणकर उनका मन अभी भी आनंद में डूबा हुआ था । उनके लिए यह कोई सामान्य स्वप्न नहीं था । यह तो स्वप्न के रूप में साक्षात् भगवान का दिव्य संदेश था,
     कि उन्हें अब भगवान की प्राप्ति के लिए करना क्या है । ऐसे दिव्य स्वप्न शुद्ध , सरल हृदय वाले साधक को ही आते हैं ।

ऐसे स्वप्न के द्वारा भगवान अक्सर साधकों को दर्शन व मार्गदर्शन देते हैं । रंगनाथ जी को जीवन के अंतिम क्षण तक उस दिव्य स्वप्न का एहसास व आनंद होता रहा,
       मानो वह कल की ही बात हो। रंगनाथ जी ने भगवान के कहे अनुसार अपनी नई दिनचर्या प्रारंभ की। नित्य त्रिकाल गायत्री मंत्र के साथ संध्यावंदन , ' ॐ नमो नारायणाय ' मंत्र का जप व हृदय में भगवान श्रीहरि के दिव्य चतुर्भुज रूप का ध्यान वे करने लगे,।
         साथ ही शास्त्रों का अध्ययन, और, दान , परोपकार , ईश्वर भाव से जीव सेवा करने लगे और वर्षों बाद वह घड़ी भी आई , जब उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ , 
       आत्मबोध हुआ। उन्हें अपने सत् - चित् - आनंदस्वरूप का बोध हुआ । उनका जीवन , उनका पल - पल , क्षण - क्षण अलौकिक आनंद से भर उठा । 
       सचमुच यदि रंगनाथ की तरह साधक में भगवान को पाने की सच्ची प्यास हो , तो एक - न एक दिन साधक को आत्मसाक्षात्कार के रूप में अपनी मंजिल मिल ही जाती है । इसमें निश्चित ही कोई संशय नहीं , कोई संदेह नहीं,

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